शनिवार, 29 सितंबर 2018

महान कवि कबीर दास का जीवन परिचय | Kabir Das Biography in Hindi


Kabir Das Biography in Hindi ( कबीर दास का जीवन परिचय ) :  कबीर दास भारतीय इतिहास के महान संत एवं कवि थे. संत कबीर दास के दोहे आज के दौर में लोगों को बेहतर रास्ता और अमूल्य बातें बताने का काम करते हैं. कबीर दास (Kabir das) अधिक पढ़े-लिखे ना होने के बावजूद भी अपने समय के सबसे बड़े समाज सुधारक संत के रूप में जाने जाते हैं.

 कबीर दास (Kabir das) भक्ति काल के प्रमुख साहित्यकार थे. कबीर दास ने हिंदू मुस्लिम दोनों जातियों को एक सूत्र की डोर में बांधने का प्रयास किया. कबीर दास को हिंदू मुस्लिम एकता का पहला प्रवर्तक माना जाता है. उन्होंने भारतीय समाज को दकियानूसी एवं तंगदिली सोच से से बाहर निकाल कर एक नई राह पर डालने का प्रयास किया. आज इस लेख के माध्यम से हम आपको कबीर दास(Kabir das) के जीवन परिचय से अवगत कराएंगे आशा करते हैं आपको यह लेख पसंद आएगा.



पूरा नाम               -      कबीर दास (Kabir das).
जन्म                    -     संवत 1455, लहरतारा (उत्तर प्रदेश).
माता पिता का नाम  -     अज्ञात (विधवा ब्राह्मणी).
पत्नी का नाम         -     लोई.
गुरु का नाम           -     स्वामी रामानंद.
मृत्यु                     -     संवत 1575, मगहर (उत्तर प्रदेश).

कबीर दास का जीवन परिचय - Kabir das Biography in Hindi

कबीरदास का जन्म संवत 1455 में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था. लेकिन समाज के भय से विधवा ब्राह्मणी ने इस नन्हे शिशु को लहरतारा तालाब के पास एक टोकरी में रख कर छोड़ दिया. उसी तालाब के पास से नीरू नीमा नामक एक जुलाहा दंपत्ति गुजरता था. जब उस जुलाहे दंपत्ति ने लहरतारा तालाब के पास उस बच्चे की रोने की आवाज सुनी तो उनका हृदय द्रवित हो उठा और जुलाहे दंपत्ति उस नन्हे शिशु (कबीर दास) को अपने घर ले गया. 

इस बच्चे का नाम कबीर रखा गया. कबीरदास का जन्म तो हिंदू परिवार में हुआ, लेकिन पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ. कबीर दास को बचपन से ही दोनों धर्मों के प्रति लगाव था. उनके जन्म एवं पालन-पोषण पर अलग-अलग मत हैं, कुछ इतिहासकारों का कहना है कि कबीरदास का जन्म जुलाहा जाति के परिवार में ही हुआ था, लेकिन वह परिवार कुछ समय पहले ही धर्म परिवर्तन कर हिंदू से मुस्लिम बना था. इसीलिए कबीर दास को दोनों धर्मों के संस्कार प्राप्त हुए. 

● कबीर दास जी के भजन अर्थ सहित

उनके विचारों में हिंदू-मुसलमान दोनों धर्मो का प्रभाव देखने को मिलता था. कबीर दास जी के बारे में कहा जाता है कि वह एक बार काशी के घाट पर बैठे हुए थे, इसी दौरान स्वामी रामानंद जी वहां आ पहुंची. भीड़ भाड़ ज्यादा  होने के कारण स्वामी रामानंद का पैर कबीर दास से स्पर्श हो गया. जब स्वामी रामानंद जी को इस बारे में पता चला तो उनके मुंह से "राम-राम" शब्द निकल पड़े. इसी घटना के बाद कबीरदास ने स्वामी रामानंद को अपना गुरु मान लिया और गुरु मंत्र के रूप में "राम-राम" का जाप करने लगे.

कहा जाता है कि कबीर दास भाषा के अच्छे ज्ञाता थे. उनको वाणी का तानाशाह भी कहा गया. कवियों के मतानुसार कबीरदास ने जिस बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया.

कबीर दास जी के दोहे में उल्लेख मिलता है कि वह अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे और उन्होंने अपने जीवन काल में कागज कलम को हाथ तक नहीं लगाया था. उनके शिष्यों के द्वारा कागज पर उनके दोहो को शब्दों के माध्यम से गढ़ा गया था. 

कबीर दास की मृत्यु - Kabir das Death History in Hindi

कबीर दास ने लगभग 120 साल की उम्र पाई. बताया जाता है कि वह अपने अंतिम दिनों में मगहर चले गए. उन दिनों समाज में यह अंधविश्वास जोरो पर था कि काशी में मरने वाला व्यक्ति 'स्वर्ग' एवं मगहर में देह त्यागने वाला व्यक्ति 'नरक' को प्राप्त होता है. समाज के इसी अंधविश्वास को दूर करने के लिए कबीर दास जी ने अपना अंतिम समय मगहर में बिताया.

उनकी मृत्यु के विषय में लोगों के अलग-अलग मत हैं, कुछ लोगों का कहना है कि वे संवत 1575 में साधारण मृत्यु को प्राप्त हुए थे. लेकिन कुछ जानकारों का कहना है कि 'सिकंदर लोदी' ने कबीरदास को कांटो में खड़ा करके जिंदा जलवा दिया था. लेकिन इस तथ्य मैं कितनी सच्चाई है इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं है.

कबीर दास की मृत्यु के बाद उनके हिंदू-मुस्लिम अनुयायियों में अंतिम संस्कार को लेकर विवाद हुआ.  लेकिन जब कबीर दास जी के शव से कफन उठाया गया तो वहां कुछ फूल पड़े हुए मिले. बाद में दोनों धर्मों के लोगों ने फूलों को बांटकर अपने अपने धर्म के अनुसार कबीर दास जी का अंतिम संस्कार किया. वर्तमान समय में मगहर में कबीर दास जी का मंदिर एवं मजार साथ-साथ बनी हुई हैं. कबीर दास जी समाज के एक ऐसे संत जो पूरी दुनिया के प्रेरणा स्रोत हैं. उनकी रचना- साखी, सबद और रमैनी आज भी लोगों को अज्ञानता से ज्ञान की राह दिखाती है.

फणीश्वरनाथ रेणु

फणीश्वर नाथ रेणु (1921-1977)

जीवनी

फणीश्वर नाथ जी का जन्म बिहार के अररिया जिले के फॉरबिसगंज के निकट औराही हिंगना ग्राम में हुआ था । प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद इन्होने मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की । इन्होने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में की जिसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पङे । बाद में 1950 में उन्होने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया जिसके परिणामस्वरुप नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई । उन्होने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी । सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे । इनकी कई रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है ।

लेखन-शैली

इनकी लेखन-शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था । पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था । इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी । एक आदिम रात्रि की महक इसका एक सुंदर उदाहरण है ।इनकी लेखन-शैली प्रेमचंद से काफी मिलती थी और इन्हें आजादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है ।अपनी कृतियों में उन्होने आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है । अगर आप उनके क्षेत्र से हैं (कोशी), तो ऐसे शब्द, जो आप निहायत ही ठेठ या देहाती समझते हैं, भी देखने को मिल सकते हैं आपको इनकी रचनाओं में ।

साहित्यिक कृतियां

उपन्यास

मैला आंचलपरती परिकथाजूलूसदीर्घतपाकितने चौराहेपलटू बाबू रोड

कथा-संग्रह

एक आदिम रात्रि की महकठुमरीअग्निखोरअच्छे आदमी

रिपोर्ताज

ऋणजल-धनजलनेपाली क्रांतिकथावनतुलसी की गंधश्रुत अश्रुत पूर्वे

प्रसिद्ध कहानियां

मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम)एक आदिम रात्रि की महकलाल पान की बेगमपंचलाइटतबे एकला चलो रेठेससंवदिया

सम्मान

अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिये उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया ।

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884-1940) बीसवीं शताब्दी के हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। उनका जन्म बस्ती, उत्तर प्रदेश मे हुआ था। उनकी द्वारा लिखी गई पुस्तको मे प्रमुख है हिन्दी साहित्य काइतिहास, जिसका हिन्दी पाठ्यक्रम को निर्धारित करने मे प्रमुख स्थान है। शुक्ल जी हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ| हिन्दी निबंध के क्षेत्र में शुक्ल जी का स्थान बहुत ऊंचा है। वे श्रेष्ठ और मौलिक निबंधकार थे। उन्होंने जिस रूप में भावों और मनोविकारों पर वे सर्वथा अभिनव और अनूठे हैं।जीवन परिचयआचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सं. 1884 में बस्ती जिले के अगोना नामक गांव में हुआ था। उनके पिता पं. चंद्रबली शुक्ल की नियुक्ति सदर कानूनगो के पद पर मिर्ज़ापुर में हुई तो सारा परिवार भी मिर्ज़ापुर में आकर रहने लगा।जिस समय शुक्ल जी की अवस्था नौ वर्ष की थी, उनकी माता का देहांत हो गया। माता के दुख के अभाव के साथ-साथ उन्हें विमाता से मिलने वाले दुःख को भी सहना पड़ा, इससे उनका व्यक्तित्व बड़ा गंभीर बन गया। पढ़ने की लगन शुक्ल जी में बचपन से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। किसी तरह उन्होंने एंट्रंस और एफ. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल जी कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखे, किंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। अंत में पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर साहित्य में थी। अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे।शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास किया, किंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका।शुक्ल जी मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापक हो गए। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। और धीरे-धीरे उनकी विद्वत्ता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिंदी शब्द सागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे।अंत में शुक्ल जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन का कार्य किया। बाबू श्याम सुंदर दास की मृत्यु के बाद वे वहां हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए।1940 में हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया।कृतियाँशुक्ल जी की कृतियाँ तीन प्रकार के हैं।मौलिक कृतियाँ तीन प्रकार की हैं–आलोचनात्मक ग्रंथ : सूर, तुलसी, जायसी पर की गई आलोचनाएं, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रस मीमांसा आदि शुक्ल जी की आलोचनात्मक रचनाएं हैं।निबंधात्मक ग्रंथ उनके निबंध चिंतामणि नामक ग्रंथ के दो भागों में संग्रहीत हैं। चिंतामणि के निबन्धों के अतिरिक्त शुक्लजी ने कुछ अन्य निबन्ध भी लिखे हैं , जिनमें मित्रता, अध्ययन आदि निबन्ध सामान्य विषयों पर लिखे गये निबन्ध हैं। मित्रता निबन्ध जीवनोपयोगी विषय पर लिखा गया उच्चकोटि का निबन्ध है जिसमें शुक्लजी की लेखन शैली गत विशेषतायें झलकती हैं।ऐतिहासिक ग्रंथ : हिंदी साहित्य का इतिहास उनका अनूठा ऐतिहासिक ग्रंथ है।अनूदित कृतियांशुक्ल जी की अनूदित कृतियां कई हैं। शशांक उनका बंगला से अनुवादित उपन्यास है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज़ी से विश्व-प्रबंध, आदर्श जीवन, मेगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन, कल्पना का आनंद आदि रचनाओं का अनुवाद किया।संपादित कृतियांसंपादित ग्रंथों में हिंदी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमर गीत सार, सूर, तुलसी जायसी ग्रंथावली उल्लेखनीय है।वर्ण्य विषयशुक्ल जी ने प्रायः साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक निबंध लिखे हैं। साहित्यिक निबंधों के 3 भाग किए जा सकते हैं –सैध्दांतिक आलोचनात्मक निबंधकविता क्या है। काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था, साधारणीकरण और व्यक्ति वैचियवाद, आदि निबंध सैध्दांतिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं। आलोचना के साथ-साथ अन्वेषण और गवेषणा करने की प्रवृत्ति भी शुक्ल जी में पर्याप्त मात्रा में है। हिंदी साहित्य का इतिहास उनकी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है।व्यवहारिक आलोचनात्मक निबंधभारतेंदु हरिश्चंद्र, तुलसी का भक्ति मार्ग, मानस की धर्म भूमि आदि निबंध व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं ।मनोवैज्ञानिक निबंधमनोवैज्ञानिक निबंधों में करुणा, श्रध्दा, भक्ति, लज्जा, ग्लानि, क्रोध, लोभ, प्रीति आदि भावों तथा मनोविकारों पर लिखे गए निबंध आते हैं। शुक्ल जी के ये मनोवैज्ञानिक निबंध सर्वथा मौलिक हैं। उनकी भांति किसी भी अन्य लेखक ने उपर्युक्त विषयों पर इतनी प्रौढ़ता के साथ नहीं लिखा।शुक्ल जी के निबंधों में उनकी अभिरुचि, विचार धारा अध्ययन आदि का पूरा-पूरा समावेश है। वे लोकादर्श के पक्के समर्थक थे। इस समर्थन की छाप उनकी रचनाओं में सर्वत्र मिलती है।भाषाशुक्ल जी के गद्य-साहित्य की भाषा खड़ी बोली है और उसके प्रायः दो रूप मिलते हैं –क्लिष्ट और जटिलगंभीर विषयों के वर्णन तथा आलोचनात्मक निबंधों के भाषा का क्लिष्ट रूप मिलता है। विषय की गंभीरता के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है। गंभीर विषयों को व्यक्त करने के लिए जिस संयम और शक्ति की आवश्यकता होती है, वह पूर्णतः विद्यमान है। अतः इस प्रकार को भाषा क्लिष्ट और जटिल होते हुए भी स्पष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है।सरल और व्यवहारिकभाषा का सरल और व्यवहारिक रूप शुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंधों में मिलता है। इसमें हिंदी के प्रचलित शब्दों को ही अधिक ग्रहण किया गया है यथा स्थान उर्दू और अंग्रेज़ी के अतिप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। भाषा को अधिक सरल और व्यवहारिक बनाने के लिए शुक्ल जी ने तड़क-भड़क अटकल-पच्चू आदि ग्रामीण बोलचाल के शब्दों को भी अपनाया है। तथा नौ दिन चले अढ़ाई कोस, जिसकी लाठी उसकी भैंस, पेट फूलना, काटों पर चलना आदि कहावतों व मुहावरों का भी प्रयोग निस्संकोच होकर किया है।शुक्ल जी का दोनों प्रकार की भाषा पर पूर्ण अधिकार था। वह अत्यंत संभत, परिमार्जित, प्रौढ़ और व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण निर्दोष है। उसमें रंचमात्र भी शिथिलता नहीं। शब्द मोतियों की भांति वाक्यों के सूत्र में गुंथे हुए हैं। एक भी शब्द निरर्थक नहीं, प्रत्येक शब्द का अपना पूर्ण महत्व है।शैलीशुक्ल जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की पूरी-पूरी छाप है। यही कारण है कि प्रत्येक वाक्य पुकार कर कह देता है कि वह उनका है। सामान्य रूप से शुक्ल जी की शैली अत्यंत प्रौढ़ और मौलिक है। उसमें गागर में सागर पूर्ण रूप से विद्यमान है। शुक्ल जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप हैं –1. आलोचनात्मक शैलीशुक्ल जी ने अपने आलोचनात्मक निबंध इसी शैली में लिखे हैं। इस शैली की भाषा गंभीर है। उनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। वाक्य छोटे-छोटे, संयत और मार्मिक हैं। भावों की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है कि उनको समझने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती।2. गवेषणात्मक शैलीइस शैली में शुक्ल जी ने नवीन खोजपूर्ण निबंधों की रचना की है। आलोचनात्मक शैली की अपेक्षा यह शैली अधिक गंभीर और दुरूह है। इसमें भाषा क्लिष्ट है। वाक्य बड़े-बड़े हैं और मुहावरों का नितांत अभाव है।3. भावात्मक शैलीशुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंध भावात्मक शैली में लिखे गए हैं। यह शैली गद्य-काव्य का सा आनंद देती है। इस शैली की भाषा व्यवहारिक है। भावों की आवश्यकतानुसार छोटे और बड़े दोनों ही प्रकार के वाक्यों को अपनाया गया है। बहुत से वाक्य तो सूक्ति रूप में प्रयुक्त हुए हैं। जैसे – बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।इनके अतिरिक्त शुक्ल जी के निबंधों में निगमन पध्दति, अलंकार योजना, तुकदार शब्द, हास्य-व्यंग्य, मूर्तिमत्ता आदि अन्य शैलीगत विशेषताएं भी मिलती हैं।साहित्य में स्थानशुक्ल जी हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। तुलसी, सूर और जायसी की जैसी निष्पक्ष, मौलिक और विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं उन्होंने प्रस्तुत की वैसी अभी तक कोई नहीं कर सका। शुक्ल जी की ये आलोचनाएं हिंदी साहित्य की अनुपम विधियां हैं।निबंध के क्षेत्र में शुक्ल जी का स्थान बहुत ऊंचा है। वे श्रेष्ठ और मौलिक निबंधकार थे। उन्होंने जिस रूप में भावों और मनोविकारों पर वे सर्वथा अभिनव और अनूठे हैं।

बुधवार, 26 सितंबर 2018

रित्विक भट्टाचार्य का जीवन परिचय Ritwik Bhattacharya Biography In Hindi

नाम : रित्विक भट्टाचार्य
जन्म : 14 अक्टूबर 1979
जन्मस्थान : वेनेजुएला

रित्विक भट्टाचार्य ने फरवरी 1977 में एशियाई जूनियर स्क्वाश चैंपियनशिप में भारत के लिए कांस्य पदक जीता | वह भारत में चार बार राष्ट्रीय चैंपियन रह चुके हैं | उन्होंने 1997 में सेना के सर्वोच्च कमांडर से स्क्वाश में श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र प्राप्त किया । 1996-97 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा सर्वश्रेष्ठ ‘आलराउंडर खिलाड़ी’ का पुरस्कार प्रदान किया गया |


रित्विक भट्टाचार्य का जीवन परिचय (Ritwik Bhattacharya Biography In Hindi)

रित्विक को भारत का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी माना जाता है । वह एकमात्र भारतीय खिलाड़ी हैं जो पीएसए टूर के लिए खेल रहे हैं ।

रित्विक भट्टाचार्य का जन्म वेनेजुएला में हुआ था । उनका 8 वर्ष तक का बचपन वहीं मस्ती करते हुए बीता । वहाँ उन्हें तैराकी करने व बेसबाल खेलने में आनंद आता था । फिर अचानक किस्मत ने पलटा खाया और वह भारत आ गए । तब बहुत छोटे थे और भारत में होने वाली सामान्य चीजों के बारे में अक्सर शिकायत करते थे, जैसे यहाँ पेप्सी क्यों नहीं मिलती ? धीरे-धीरे रित्विक ने भारत के अनुसार यहाँ की जीवनचर्या में स्वयं को ढालना शुरू कर दिया । उन्होंने पेप्सी जैसी अनेक चीजों के बिना रहना सीख लिया ।

वह अपने पिता के साथ एक शहर से दूसरे शहर घूमते रहे । 6 माह इलाहाबाद, एक वर्ष बंगलौर, एक वर्ष दिल्ली में बिताने के बाद वह चेन्नई पहुँच गए । तब तक वह 12 वर्ष के हो चुके थे और इतने समय में 8 स्कूलों में पढ़ाई के साथ ही 4 भाषाएं सीख चुके थे ।

इसके पश्चात् रित्विक के जीवन में किशोरावस्था के साथ नए बदलाव शुरू हो गए । तब तक भारत में पेप्सी भी आ गई थी और उनके स्कूली जीवन में उनकी गर्लफ्रेंड भी बन चुकी थी ।

उन्होंने स्क्वाश खेलते हुए अनेक सफलताएँ अर्जित की हैं । उनकी स्क्वाश की ट्रेनिंग व शिक्षा अमेरिका से हुई है । वह ऊटाह विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ कम्प्यूटिंग से पी.एच.डी. कर रहे हैं । वह सॉफ्टवेयर तथा हार्डवेयर के फार्मल तरीकों की पहचान पर अनुसंधान कर रहे हैं । वह अपना मुख्य निवास लंदन में बनाना चाहते हैं ताकि नील हार्वी की कोचिंग से खेल में बेहतर प्रदर्शन कर सकें ।

उन्होंने 1996-1997 में ‘सर्वश्रेष्ठ आलराउंडर खिलाड़ी’ का पुरस्कार जीता, जो उन्हें राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया । 1997 में दिल्ली खेल पत्रकार संघ द्वारा उन्हें वर्ष का ‘मोस्ट प्रामिजिंग स्पोर्ट्समैन’ का पुरस्कार दिया गया ।

1997 में रित्विक राष्ट्रीय जूनियर चैंपियन रहे । इसके पश्चात् 1998 में वह 19 वर्ष की आयु में स्क्वाश के राष्ट्रीय चैंपियन बने । वर्ष 2000, 2002 तथा 2003 में भी उन्होंने राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीतीं ।

रित्विक ने पीएसए टूर 1998 में पहली बार भाग लिया । उनकी सर्वश्रेष्ठ रैंकिंग नवम्बर 2006 में थी जब वह विश्व रैंकिंग में 38वें नंबर पर पहुँच गए थे । एक समय उनकी रैंकिंग 51, 60 तथा 122 रही है ।

जनवरी 2005 में रित्विक ने 6000 डॉलर का आई.सी.एल. चेन्नई ओपन स्क्वाश टूर्नामेंट जीता था । इसमें उन्होंने सिद्धार्थ सूडे को हराया था ।

उपलब्धियां :

पुरुषों की स्क्वाश राष्ट्रीय चैंपियनशिप में प्रथम रैंकिंग हासिल की है |

1998, 2000, 2002 तथा 2003 में वह स्क्वाश के चैंपियन रहे हैं |

अन्तर्राष्ट्रीय पी.एस.ए. टूर में नवम्बर 2000 में उनकी रैंकिंग 122 थी |

1 अगस्त से 15 अगस्त 1998 को होने वाली दसवीं मैन्ज स्क्वाश चैंपियनशिप प्रिसंटन (यू.एस.ए.) में वह भारतीय जूनियर टीम के कप्तान थे ।

जुलाई 2000 में दसवीं एशियाई स्क्वाश चैंपियनशिप, हांगकांग में वह भारतीय स्क्वाश टीम के कप्तान थे |

1997 में आई.बी.ए. हांगकांग स्क्वाश ओपन में वह रनरअप रहे |

1998 में रित्विक मुम्बई में भारतीय ओपन में विजेता रहे |

1998 में एशियाई ग्रांड फाइनल, दिल्ली में उन्होंने विजेता बनकर मुकाबला जीता |

2000 में जयपुर में हुए ‘जयपुर ओपन’ में रित्विक विजेता रहे |

वह भारत के सर्वश्रेष्ठ स्क्वाश खिलाड़ी समझे जाते हैं और 6 पी.सी.ए. टूर में भाग ले चुके हैं |

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

अजीत पाल सिंह का जीवन परिचय Ajit Pal Singh Biography In Hindi

नाम : अजीत पाल सिंह
जन्म : 15 मार्च, 1947
जन्मस्थान : संसारपुर, जालंधर, (पंजाब)

सेंटर हाफ पर हॉकी खेलने वाले अजीत पाल सिंह को अति कुशल खिलाड़ी के रूप में जाना जाता है | उन्होंने तीन बार ओलंपिक खेलों में भाग लिया | 1975 का विश्वकप जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान थे | उनकी खेल उत्कृष्टता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें 1970 में ‘अर्जुन पुरस्कार’ और 1992 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया । राष्ट्रीय पुरस्कारो के अतिरिक्त उन्हें एक पैट्रोल पम्प पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया गया जिसका नाम उन्होंने ‘सेन्टर हाफ’ रखा है |


अजीत पाल सिंह का जीवन परिचय (Ajit Pal Singh Biography In Hindi)

अजीत पाल सिंह को अति श्रेष्ठ हाफ-बैक हॉकी खिलाड़ियों में माना जाता है । उनका नाम 1928 तथा 1932 की ओलंपिक टीम के ई.पेनीगर के बाद ‘हाफ बैक’ के रूप में जाना जाता है । वह गेंद को कुशलतापूर्वक हिट कर जाते थे ।

अजीत पाल ने हॉकी खेलना तभी आरम्भ कर दिया था, जब वह कैंटोनमेंट बोर्ड हायर सेकेन्ड्री स्कूल, जालंधर में पढ़ते थे । 1963 में पंजाब स्कूल टीम के लिए उन्होंने ‘फुल बैक’ खिलाड़ी के रूप में खेला था ।

इसके पश्चात् अजीत पाल ने लायलपुर खालसा कॉलेज, जालंधर की ओर से खेलना आरम्भ कर दिया । 1966 में अन्तर विश्वविद्यालय हॉकी टूर्नामेंट में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय की कप्तानी की । 1968 में उन्होंने विश्वविद्यालयों की मिली-जुली टीम में सेंटर हाफ के रूप में खेला । उन्होंने बार्डर सिक्योरिटी फोर्स में शामिल होने के पश्चात् फोर्स की हॉकी टीम में शामिल होकर फोर्स की ओर से सभी राष्ट्रीय हॉकी टूर्नामेंट में भाग लिया । 1966 में अजीत पाल ने पहली बार अन्तरराष्ट्रीय मैच में हिस्सा लिया, जब उन्हें जापान जाने वाली भारतीय टीम में शामिल किया गया । 1967 में अजीत पाल सिंह को लंदन में प्री-ओलंपिक टूर्नामेंट में खेलने का अवसर मिला । इससे उनका चुनाव 1968 में मैक्सिको में होने वाले ओलंपिक में खेलने के लिए भारतीय टीम में हो गया । इस ओलंपिक में भारतीय टीम का प्रदर्शन बेहद खराब रहा और टीम तीसरे स्थान पर रही ।

1972 में म्यूनिख ओलंपिक में अजीत पाल ने भारतीय हॉकी टीम का सदस्य बन कर भाग लिया और टीम ने कांस्य पदक जीता । 1976 के मांट्रियल ओलंपिक में अजीत सिंह ने भारतीय हॉकी टीम की कप्तानी की ।

ओलंपिक खेलों के अतिरिक्त अजीत पाल ने 1970 के बैंकाक एशियाई खेलों में भारतीय टीम का सदस्य बन कर भाग लिया और टीम ने रजत पदक जीता । 1974 के तेहरान एशियाई खेलों में अजीत भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे । भारतीय टीम ने उनकी कप्तानी में रजत पदक जीता । 1974 में अजीत पाल को ‘एशियाई ऑल स्टारर’ टीम का सदस्य चुना गया ।

1971 में सिंगापुर में हुए पोस्ट शुआन टूर्नामेंट में भारतीय टीम ने अजीत पाल की कप्तानी में विजय प्राप्त की । 1971 में ही उनकी कप्तानी में भारतीय टीम ने बार्सिलोना में ‘फर्स्ट वर्ल्ड कप’ में कांस्य पदक जीता । 1972 में पुन: अजीत पाल ने टीम का हिस्सा बन कर एम्सटरडम वर्ल्ड कप में भाग लिया, लेकिन भारतीय टीम फाइनल में हालैंड की टीम से हार गई और टीम को रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा ।

अजीत पाल का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1975 में देखने को मिला । जब भारतीय टीम ने कुआलालंपुर में अजीत पाल की कप्तानी में पाकिस्तान को हरा कर ‘विश्व कप’ जीत लिया । विश्व कप जीतने पर भारतीय टीम का भारत आगमन पर भव्य स्वागत किया गया ।

अजीत पाल सिंह ने जीतने पर वापसी में अपनी खुशी का इजहार इन शब्दों में किया- “विश्व कप की खुशी से ज्यादा मीठा कुछ भी नहीं है | हमारी सफलता का राज हमारी मेहनत है |”

विश्व कप जीतने वाली टीम के कप्तान रहने के बाद अजीत पाल के लिए वह निराशापूर्ण क्षण रहा जब 1986 में उनकी कोचिंग में तैयार भारतीय टीम लंदन में बुरी तरह हार गई । भारत का प्रदर्शन इतना निराशाजनक रहा कि भाग लेने वाली 12 टीमों में भारत का स्थान 12वां यानी अन्तिम था ।

उपलब्धियां :

अजीत पाल सिंह ने तीन बार (1968, 1972 तथा 1976) ओलंपिक खेलों में भाग लिया । 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में भारत ने कांस्य पदक जीता |

1970 में वह भारतीय टीम में शामिल थे जिसने बैंकाक के एशियाई खेलों में रजत पदक प्राप्त किया था |

1971 में अजीत पाल की कप्तानी में टीम ने सिंगापुर का पोस्ट शुआन टूर्नामेंट जीता और बार्सिलोना में ‘फर्स्ट वर्ल्ड कप’ मुकाबले में कांस्य पदक जीता ।

1972 में अजीत सिंह ने टीम के साथ एम्सटरडम वर्ल्ड कप में रजत पदक जीता ।

1974 में तेहरान एशियाई खेलों में भारतीय हॉकी टीम ने अजीत पाल सिंह की कप्तानी में रजत पदक जीता ।

1975 में कुआलालंपुर में हुए वर्ल्ड कप में अजीत पाल सिंह की कप्तानी में भारतीय टीम ने पाकिस्तान को हरा कर वर्ल्ड कप जीत लिया ।

उन्हें 1970 में ‘अर्जुन पुरस्कार’ देकर सम्मानित किया गया |

1992 में अजीत पाल को ‘पद्मश्री’ की उपाधि प्रदान की गई ।