रविवार, 21 अक्टूबर 2018

कवि नागार्जुन का जीवन परिचय


नागार्जुन ( Nagarjuna,  30 जून, 1911 - 5 नवंबर, 1998) प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि हैं। नागार्जुन ने 1945 ई. के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में क़दम रखा। शून्यवाद के रूप में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। नागार्जुन का असली नाम 'वैद्यनाथ मिश्र' था। हिन्दी साहित्य में उन्होंने 'नागार्जुन' तथा मैथिली में 'यात्री' उपनाम से रचनाओं का सृजन किया।

30 जून सन् 1911 के दिन ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा हिन्दी काव्य जगत के उस दिवाकर के उदय का साक्षी था, जिसने अपनी फ़क़ीरी और बेबाक़ी से अपनी अनोखी पहचान बनाई। कबीर की पीढ़ी का यह महान कवि नागार्जुन के नाम से जाना गया। मधुबनी ज़िलेके 'सतलखा गाँव' की धरती बाबा नागार्जुन की जन्मभूमि बन कर धन्य हो गई। ‘यात्री’ आपका उपनाम था और यही आपकी प्रवृत्ति की संज्ञा भी थी। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने वाले बाबा नागार्जुन हिन्दी, मैथिली, संस्कृत तथा बांग्ला मेंकविताएँ लिखते थे। 


मैथिली भाषा में लिखे गए आपके काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी काव्य-मंच पर अपनी सत्यवादिता और लाग-लपेट से रहित कविताएँ लम्बे युग तक गाने के बाद 5 नवम्बरसन् 1998 को ख्वाजा सराय, दरभंगा, बिहार में यह रचनाकार हमारे बीच से विदा हो गया। उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि कभी छुटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीं जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अबतक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। 'फटेहाली' महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्री जी को ही है।

कृतियाँ

'युगधारा', खिचडी़', 'विप्‍लव देखा हमने', 'पत्रहीन नग्‍न गाछ', 'प्‍यासी पथराई आँखें', इस गुब्‍बारे की छाया में', 'सतरंगे पंखोंवाली', 'मैं मिलिट्री का बूढा़ घोड़ा' जैसी रचनाओं से आम जनता में चेतना फैलाने वाले नागार्जुन के साहित्‍य पर विमर्श का सारांश था कि बाबा नागार्जुन जनकवि थे और वे अपनी कविताओं में आम लोगों के दर्द को बयाँ करते थे। विचारक हॉब्‍सबाम ने इस सदी को अतिवादों की सदी कहा है। उन्‍होंने कहा कि नागार्जुन का व्‍यक्तित्‍व बीसवीं शताब्‍दी की तमाम महत्‍वपूर्ण घटनाओं से निर्मित हुआ था। वे अपनी रचनाओं के माध्‍यम से शोषणमुक्‍त समाज या यों कहें कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए प्रयासरत थे। उनकी विचारधारा यथार्थ जीवन के अन्‍तर्विरोधों को समझने में मदद करती है। वर्ष 1911 इसलिए महत्‍वपूर्ण माना जाता है क्‍योंकि उसी वर्ष शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, फैज एवं नागार्जुन पैदा हुए। उनके संघर्ष, क्रियाकलापों और उपलब्धियों के कारण बीसवीं सदी महत्‍वपूर्ण बनी। इन्‍होंने ग़रीबों के बारे में, जन्‍म देने वाली माँ के बारे में, मज़दूरों के बारे में लिखा। लोकभाषा के विराट उत्‍सव में वे गए और काव्‍य भाषा अर्जित की। लोकभाषा के संपर्क में रहने के कारण इनकी कविताएँ औरों से अलग है। सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्‍वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आज़ादी की लड़ाई की अंतर्वस्‍तु शामिल है। नागार्जुन के गीतों में काव्य की पीड़ा जिस लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देती। आपने काव्य के साथ-साथ गद्य में भी लेखनी चलाई। आपके अनेक हिन्दीउपन्यास, एक मैथिली उपन्यास तथा संस्कृत भाषा से हिन्दी में अनूदित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए। काव्य-जगत को आप एक दर्जन काव्य-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली कविता संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य ‘धर्मलोक शतकम्’ थाती के रूप में देकर गए। प्रकाशित कृतियों में पहला वर्ग उपन्यासों का है। छः से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली;(हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता।

कविता-संग्रह - अपने खेत में, युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियां, खिचड़ी विपल्व देखा हमने, हजार-हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबार की छाया में, ओम मंत्र, भूल जाओ पुराने सपने, रत्नगर्भ।
उपन्यास- रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नयी पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, कुंभीपाक, पारो, आसमान में चाँद तारे।
व्यंग्य- अभिनंदन
निबंध संग्रह- अन्न हीनम क्रियानाम
बाल साहित्य - कथा मंजरी भाग-1, कथा मंजरी भाग-2, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँ
मैथिली रचनाएँ-चित्रा , पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह), पारो, नवतुरिया (उपन्यास)।
बांग्ला रचनाएँ- मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद)
ऐसा क्या कह दिया मैंने- नागार्जुन रचना संचयन

सम्मान और पुरस्कार

नागार्जुन को 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से उनके ऐतिहासिक मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए1969 में नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित भी किया था।

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

सुमित्रानंदन पंत-जीवन परिचय | Biography of Sumitranandan Pant

जन्म – 20 मई 1900
जन्म स्थान – कौसानी (उत्तराखंड)
पिता – गंगा दत्त पंत
मृत्यु – 29 दिसम्बर 1977

जग पीड़ित है अति दुःख से

जग पीड़ित रे अति – सुख से

मानव जग में बँट जाए

दुःख सुख से औ सुख दुःख से

प्रकृति के प्रेमी एवं प्रकृति के सुकुमार कवि ने नाम से विख्यात सुमित्रा नंदन पंत का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में हुआ था इनके जन्म के कुछ ही घंटे के उपरान्त इनकी माता का देहांत हो गया ! जिसकी वहज से इनके पालन पोषण का जिम्मा इनकी दादी पर आ गया  और इनकी दादी ने इनका पालन –पोषण किया ! ये पं० गंगा पंत की आठवीं संतान थे ! 1990 में इन्होनें प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए गर्वनमेंट हाईस्कूल अल्मोड़ा में अपना प्रवेश ले लिये ! इनके बचपन का नाम गोसाई दत्त था किन्तु अल्मोड़ा में पढाई के दौरान इन्होनें अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया ! यहाँ से ये अपने मझले भाई के साथ काशी (वाराणसी) चले आते है और क्वींस कालेज में अपना प्रवेश लेकर अध्ययन करने लगते है, यहाँ से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत ये इलाहाबाद के म्योर कालेज में चले जाते है, उसी दौरान ये गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से काफी प्रेरित होते है जिस कारण से ये महाविद्यालय की अपनी पढाई को अधुरा छोड़कर गांधी जी के इस आन्दोलन में कूद पड़ते है, और अंग्रेजी विद्यालयों महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं सरकारी कार्यालयों के बहिष्कार पर जुट गए ! और स्वाध्याय के द्वारा अपने घर पर ही हिंदी, संस्कृत और बंगला साहित्य का अध्ययन किया, इलाहाबाद में रहने के दौरान ही इनमें काव्य लेखन की अलख जगी और यहीं से इन्होनें लेखन की अलख जगी और यहीं से इन्होनें लेखन का श्री गणेश कर दिया !

कुछ समय के उपरांत इनके परिवार के ऊपर बहुत बड़ा आर्थिक संकट आ गया जिससे जूझते हुए इनके पिता की मृत्यु हो गयी, और इस आर्थिक संकट के कारण इनको अपना मकान और पूर्वजों की जमींन तक बेचना पड जाती है ! प्रकृति की वादियों में जन्म होने और पहाड़ी क्षेत्र में रहने के कारण प्रकृति के प्रति इनका प्रेम बहुत ही प्रगाढ होता चला गया !

इनके द्वारा रचित प्रत्येक रचना प्रकृति से जुडी हुयी अथवा प्रकृति का गुणगान करती हुयी है ! सन 1938 ई० में प्रगतिशील मासिक पत्रिका “रूपाभ” का संपादन किया ‘इनकी गणना हिन्दी के छायावादी कवियों में बहुत विस्तृत रूप में की जाती है, ये जीवन पर्यत साहित्य रचना की दिशा में लगे रहे, 29 दिसम्बर 1977 ई० को प्रकृति का यह रचनाकार परलोक सिधार गया !

साहित्यिक परिचय –

इनकी काव्य रचना प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखर स्वरों की घोषणा करती है, पंत जी अपने रचनाओं के माध्यम से एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी रचनाकार के रूप में सामने आते है ! इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता “परिवर्तन” है !

रचनायें-

ग्रंथि
गुंजन
युगांत
ग्राम्या
स्वर्ण किरण
स्वर्णधूलि
कला और बूढा चाँद
चिंदबरा
सत्य.
काम
परिवर्तन
लोकायतन आदि !

रविवार, 7 अक्टूबर 2018

बालकृष्ण भट्ट-जीवन परिचय | Biography of Balkrishna Bhatt

जन्म – 3 जून 1844
जन्म स्थान – इलाहाबाद (उ०प्र०)
पिता – पं० वेणी प्रसाद
मृत्यु – 20 जुलाई 1914

यह गोल-गोल प्रकाश का पिंड देख
भांति-भांति की कल्पनाएँ मन में उदय होती
क्या यह निशा अभिसारिका के मुख देखने की आरसी है
यह रजनी रमणी के ललाट पर टुक्के का सफेद तिलक है ,

हिन्दी साहित्य के एक सफल पत्रकार, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में ख्याति अर्जित करने वाले बाल कृष्ण भट्ट का जन्म इलाहाबाद में 3 जून 1844 को हुआ था ! भट्ट जी की माता इनके पिता जी से अधिक शिक्षित एवं विदुषी थी अत: बाल्यकाल से ही भट्ट जी पर इनकी माता के ज्ञान का बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा जिस कारण भट्ट जी भी तीव्र बुद्धि के बालक के रूप में बड़े हुए ! इनकी प्रारभिक शिक्षा मिशन स्कुल  में हुयी, मिशन स्कुल के प्रधानाचार्य एक पादरी थे और उनसे एक बार इनका वाद-विवाद हो जाता है जिसकी वजह से इन्होनें मिशन स्कुल जाना बंद कर दिया और घर पर ही अध्ययन करने लगे और यहीं पर संस्कृत विषय का अध्ययन करने लगे, संस्कृत  विषय के अतिरिक्त भट्ट जी ने हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी  भाषाओँ का अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया, ये एकदम स्वतंत्र प्रवृत्ति के व्यक्ति थे जो कि अपना हर कार्य स्वतंत्र होकर करना पसंद करते थे, ये अपने सिद्धांतों एवं जीवन –मूल्यों के इतने दृढ प्रतिपादन थे कि जिस कारण से इन्हें विभिन्न प्रकार की समस्याओं से अवगत होना पड़ा, अपनी इन्हीं सैद्धांतिक मूल्यों के कारण भट्ट जी ने मिशन स्कुल और कायस्थ पाठशाला से संस्कृत विषय के अध्यापक के पद से त्याग देना पड़ा, त्याग पत्र देने के उपरान्त भट्ट जी ने व्यापार में लग गए, किन्तु व्यापारिक न होने के कारण इनका मन व्यापार में नहीं लगता था अत: कुछ समय के उपरान्त इन्होनें व्यापार से त्याग दे दिया और साहित्य की सेवा में लग गये ! हिन्दी साहित्य के प्रचार के लिये इन्होनें संवत् 1933 में प्रयाग में हिन्दीवर्धनी नामक सभा की स्थापना की और यहीं से एक हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन किया जिसका नाम “हिन्दी प्रदीप” रखा, बत्तीस वर्षो तक भट्ट जी ने इनका संपादन किया और भली भांति इसे चलाते रहे, ये भारतेन्दु युग के प्रतिष्ठित निबंधकार थे निबंध की दुनिया में इनका नाम सर्वोपरि है, इनके द्वारा रचित निबंध मौलिक और भावना पूर्ण होते थे, जिसमें ये मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही सरतला पूर्वक पिरोये हुए है, इनकी व्यस्तता इतनी अधिक थी कि कुछ कहा नहीं जा सकता किन्तु अपनी तमाम व्यस्तताओं के होने के बावजुद ये कई प्रकार के साहित्य का यह प्रसिद्ध रचनाकार 20 जुलाई 1914 को परलोक वासी हो गया !

साहित्यिक परिचय

भट्ट जी की रचनाओं में शुद्ध हिन्दी का प्रयोग हुआ है, जिसकी भाषा प्रवाहमयी संयत और भावानुकूल है , इनकी इस शैली में उपमा, रूपक उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ, रचना में अलंकारों के प्रयोग से भाषा में विशेष सौन्दर्य आ गया !  भावों और विचारों के साथ कल्पना का भी सुन्दर समन्वय हुआ है, भट्ट जी की रचना बहुत ही सहज एवं सरल है !

रचनायें

साहित्य सुगमभट्ट
निबंधावली
नूतन ब्रह्मचारी
सौ अजान एक सुजान
स्वंयवरबाल-विवाह
चंद्रसेनरेल का विकट
खेलमृच्छ
कटिक
पद्मावती
भाग्य परख आदि !

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवन परिचय | Biography of Sarvepalli Radhakrishnan

जन्म – 5 सितम्बर 1888
जन्म स्थान – तिरुतनी, मद्रास
पिता – सर्वपल्ली वीरास्वामी
मृत्यु – 17 अप्रैल 1975

शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता !

प्रख्यात शिक्षा विद् एवं भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरुतनी नामक गाँव में 5 सितंबर 1888 को हुआ, इनका गाँव मद्रास (चेन्नई) से 64 किमी० दुर था ! इनका परिवार एक तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात रहा है मान्यता है की राधाकृष्णन के पुर्वंज पहले कभी ‘सर्वपल्ली’ नामक ग्राम में रहते थे और 18 वीं शताब्दी के मध्य में इन्होनें तिरुतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया  था ! इसके पूर्वज चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्म स्थल के ग्राम का बोध भी रहना चाहिए इसी कारण उनके परिजन अपने नाम के पूर्व सर्वपल्ली धारण करने लगे ! इनके पिता सर्वपल्ली वीरा स्वामी राजस्व विभाग में नौकरी करते थे जिससे इनके परिवार का भरण पोषण होता था ! राधाकृष्णन पांच भाई एवं एक बहन थे जिस कारण से परिवार का भरण पोषण करने में इनके पिता को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता था ! राधाकृष्णन का बचपन तिरुतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थानों पर व्यतीत हुआ इनके पिता धर्म को लेकर काफी भावना युक्त थे ! इन सब के उपरान्त भी इनके पिता ने इनका दाखिला क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कुल, तिरुपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिये भेजा ! फिर अगले चार वर्ष (1900-1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई ! इसके बाद इन्होनें मद्रास क्रिशिच्यं कालेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की ! अपने इन 12 वर्षो के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्वपूर्ण अंश याद कर लिये !

बचपन से एम०ए० करने के पश्चात् 1916 में मद्रास के रेजीड़ेंजी कालेज में दर्शनशास्त्र  के सहायक प्राध्यापक पद पर अपनी सेवाए प्रदान करने लगें ! राधाकृष्णन ने अपनी रचनाओं और भाषाओँ के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को भारतीय दर्शन से परिचित करवाया ! इनकी बहुमुखी प्रतिभा के कारण स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया ! ये 1747 से 1949 तक इसके सदस्य रहे, जवाहर लाल नेहरू चाहते थे की वे गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बने ! अध्यापन की दुनिया में इनका परम सौभाग्य था कि इन्हें इनकी प्रकृति के मुताबित आजीविका प्राप्त हुयी ! 17 अप्रैल 1975 को 88 वर्ष की आयु में चेन्नई में इनका देहांत हो गया !

उपाधि

1931 से 1936 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के कुलपति

1936 से 1952 तक आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्राध्यापक

1937 से 1948 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति

1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति

भारत रत्न  – 1954

प्रथम उपराष्ट्रपति- 13 मई 1952 से 12 मई 1962

द्वितीय राष्ट्रपति  13 मई 1962 से 13 मई 1967

इनके जन्म दिवस 5 सितम्बर के अवसर पर प्रत्येक वर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाता है !

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

भारतेंदु हरिश्चन्द्र – जीवन परिचय

जन्म – 9 सितम्बर 1850 ई०

जन्म स्थान – काशी (उ०प्र०)

 पिता – गोपालचंद्र “गिरिधरदास”

मृत्यु – 6 जनवरी 1885 ई०

आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म काशी के प्रसिद्ध इतिहासकार सेठ अमीचंद की प्रपौत्र गोपालचंद्र के जेष्ठ पुत्र के रूप में हुआ, किन्तु होनी को कौन टाल सकता है कि जब  हरिश्चंद्र मात्र पांच वर्ष के थे तभी इनकी माता का और दस वर्ष की आयु में इनके पिता का देहान्त हो गया, इससे इनका पालन – पोषण इनके घर की दाई कालीकदमा एवं तिलकधारी नौकर ने किया ! बचपन में ही माँ – बाप की छत्रछाया ना रहने के कारण इन्होने वाराणसी के क्वींस कालेज में मात्र तीन चार वर्ष तक अध्ययन किया ! उस दौर में काशी के रईसों में राजाशिवप्रसाद सितारे हिन्द ही अंग्रेजी पढ़े – लिखे थे जिससे भारतेन्दु जी अंग्रेज़ी पढने के लिए इनके पास जाया करते थे !

क्वींस कॉलेज छोड़ने के उपरांत इन्होने ने स्वयं से बहुत सी भारतीय भाषाओ हिंदी,संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, मारवाड़ी, बंगला, उर्दू, पंजाबी आदि भारतीय भाषाओ का ज्ञान प्राप्त किया ! 13 वर्ष की छोटी सी अवस्था में इनका विवाह काशी के रईस लाला गुलाब राय की पुत्री मन्ना देवी से हुआ !

मन्ना देवी से इनके दो पुत्र एवं एक पुत्री हुई ! किन्तु बाल्यावस्था में इनके पुत्रों की मृत्यु हो गयी !

जबकि पुत्री विद्यावती सुशिक्षिता थी ! भारतेंदु जी ने अनेक यात्रायें की जिससे इनकी कई लेखनी यात्रा वृतांत में है !

ये कवि, नाटककार, निबन्ध लेखक, संपादक, समाज सुधारक थे ! ये हिन्दी के गद्य के जन्मदाता समझे जाते थे काव्य रचना में बाल्यकाल से इनकी अधिक रूचि थी जिससे प्रभावित होकर सन 1880 ई० में पं० रघुनाथ, पं० सुधाकर दिवेदी, पं० रामेश्वर दत्त व्यास के प्रस्तावनुसार इन्हे “भारतेन्दु” की पद्वी से विभूषित किया गया ! तभी से इनके नाम के आगे भारतेन्दु सुशोभित होने लगा, इन्होंने हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए बहुत व्यापक आन्दोलन चलाया ! अपने आन्दोलन को गति देने के लिये इन्होंने पत्र – पत्रिकाओं में संपादन किया !

सन 1873 ई० में इन्होंने “हरिश्चन्द्र मैगनीज” का संपादन किया इसके अंको का प्रकाशन के बाद इनका नाम परिवर्तित करके “हरिश्चंद्र चन्द्रिका” हो गया ! किन्तु विभिन्न प्रकार की सांसारिक चिन्ताओ तथा क्षय रोग के कारण अल्पावस्था में ही 6 जनवरी 1885 ई० को इनका निधन हो गया !

साहित्यिक परिचय –

भारतेन्दु जी हिन्दी साहित्य के लिये जो समृद्ध किया वह सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव है ! इनकी कृतिया विभिन्न विधाओं में उल्लेखित है साहित्य के प्रति बहुत ही गहरा समर्पण भारतेन्दु जी ने किया, “दिल्ली दरबार दर्पण” इनका श्रेष्ठ निबन्ध माना जाता है, इन्होंने इतिहास, पुराण, धर्म, भाषा, संगीत आदि अनेक विषयों पर अपना निबन्ध लिखा ! नाटक के क्षेत्र में भी इनका प्रसिद्ध नाटक “अंधेर नगरी” है जिसमें इन्होनें एक राजा का अपनी प्रजा के प्रति क्या सोच है इसका उल्लेख करते हैं !

चनायें –

नकी समस्त विधा की रचनायें इस बात को उल्लेखित करती है कि यह एक अनूठे लेखक थे जो की विभिन्न भाषाओँ के माध्यम से अपनी रचनाओं को रचे हुए थे  ! इनकी रचना में नाटक, निबंध, संपादन, यात्रा-वृतान्त आदि का गहरा समावेश है, इनकी सर्वाधिक रचनायें खड़ी बोली में है, किन्तु काव्य में इन्होनें ब्रज भाषाओँ का प्रयोग किया है !

नाटक 

त्नावली”, “पाखण्ड-विडंबन”, “धनंजय विजय”, “कर्पूर मंजरी”, “विद्यासुंदर”, “अंधेर-नगरी”, “मुद्रा राक्षस”, “भारत जननी”, “सत्य हरिश्चंद्र”, “दुर्लभ बन्धु”, “वैदिकी”, “हिंसा हिंसा न भवति”, “श्री चन्द्रावली”, “विषस्य विश्मौश्धम”, “नील देवी”, “भारत दुर्दशा”, “सती प्रताप”, “प्रेम जोगिनी”  !

निबन्ध –

दिल्ली दरबार दर्पण”, “लीलावती”, “परिहास वंचक”, “सुलोचना”, “मदालसा” !

यात्रा वृतान्त –

“सरयू पार की यात्रा”, “लखनऊ की यात्रा”

जीवनियां –

“सूरदास”, “जयदेव”, “महात्मा मोहम्मद”

बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

जयशंकर प्रसाद – जीवन परिचय | Biography of Jaishankar Prasad

जन्म– 1889 ई० ( गुरुवार 30 जनवरी )

जन्म स्थान काशी वाराणसी उ०प्र० )

पिता  बाबू देवीप्रसाद

मृत्यु – 1937 ई०

 

 

जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी (वाराणसी) के एक प्रतिष्टित वैश्य परिवार में हुआ था , इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी थे ! जो कि तम्बाखू के एक प्रशिद्ध व्यापारी थे, इनके बाल्यावस्था में ही इनके पिता की अचानक मृत्यु हो गई तथा पिता की मृत्यु हो जाने के कारण इनका अध्ययनशील जीवन काफी प्रभावित हुआ और इनकी ज्यादातर शिक्षा घर पर ही संपन्न हुयी, घर पर ही इन्होने हिन्दी,संस्कृत,उर्दू ,अंग्रेजी,फारसी भाषाओ का गहन अध्ययन किया ! ये बड़े सरल एवं मिलनसार स्वभाव के व्यक्ति थे, अपने सरल स्वभाव उदार प्रकृति एवं दानशीलता के वजह से ये बहुत ऋणी हो गये, इन्होंने अपने पारिवारिक व्यवसाय की तरफ थोड़ा सा भी ध्यान नहीं दिया जिसके कारण इनका व्यवसाय भी बहुत प्रभावित हुआ !

बचपन से ही इनकी रूचि काव्य में थी, जो समय के साथ आगे बढ़ती गई ये अपने मृदुल स्वभाव के वजह से पुरस्कार के रूप में मिलने वाली राशि नहीं लेते थे, जिससे इनका सम्पूर्ण जीवन दु:खो में बिता और सन 1937 ई० को अल्पावस्था में ही क्षयरोग के कारण इनकी मृत्यु हो गई !

साहित्यिक परिचय –

                 प्रसाद जी छायावाद के प्रवर्तक,उन्नायक कवि के साथ – साथ प्रसिद्ध नाटककार,उपन्यासकार तथा कथाकार भी थे इनके रचनाओ में प्रेम और सौन्दर्य का उल्लेख बहुत बड़े स्तर से मिलता है, इनकी रचनाये मानवीय रूप से जुड़ी हुई है !

चनाये –

       इनकी बहुत सी रचनाये है तथा ये भाषाओ के पंडित कहे जाते है इन्होने  उपन्यास,नाटक,कहानी,निबंध इत्यादि साहित्यिक क्षेत्र में अपना योगदान दिया,इन्होने अपने लेखन शैली के माध्यम से अपनी समस्त रचनाओ का बहुत ही सुन्दर श्रृंगार किया !

कामायनी –

          प्रसाद जी की यह सबसे प्रसिद्ध रचना है इसमें इन्होने मनुष्य को श्रद्धा एवं मनु के माध्यम से ह्रदय एवं ज्ञान के समन्वय का सन्देश दिया है ! इनकी इस रचना पर इन्हे मंगलाप्रसाद पारितोषिक सम्मान मिला !

आंसू –

        यह इनके दुखों से भरी कहानी पर उधृत रचना है जैसा की इसके नाम से स्पष्ट है कि इसमें वियोग रस का समावेश है !

हर –

      मन के भावों को प्रकट करती हुई तथा लक्ष्य पर बने रहने की प्रेरणा हमें इससे प्राप्त होती है !

हानी –

आकाशदीप,इंद्रजाल,प्रतिध्वनि,आंधी !

उपन्यास –

         कंकाल,तितली,इरावती(अपूर्ण)